सनातन और समाज- 3 क्या धर्म परिवर्तन संभव या फिर उचित है।

दोस्तों आज के सनातन और समाज के इस तीसरी कड़ी मे हम बात करेंगे धर्म परिवर्तन के बारे में क्यों होता है, करना संभव है या फिर उचित है या नहीं। साथ ही क्या धर्म को लाभ हानि से जोड़कर इसे करना सही होता है।
धर्म का सही अर्थ है धारण करना धारयति इति धर्मः इसका अर्थ है ऐसा आचरण जिसे हम धरण करते है साथ ही धर्म का एक शाब्दिक अर्थ गुण से भी होता है। जैसे की गए मे गायपन और मनुष्य में मनुष्यता उसका धर्म होता है।
अब प्रश्न उठता है क्या हम धर्म परिवर्तन कर सकते है। तो समझना होगा जो गुण धर्म हम जन्म से लेकर पैदा होते है और समय के साथ उनको परिपक्व कर लेते है उन्हे कुछ विधि विधानों के जरिए कैसे खत्म करके नए गुण धर्म ग्रहण किया जा सकता है। मेरे ख्याल से से ऐसा करना असंभव है ये इसी प्रकार से है जैसे पैदा होने के बाद हमारे शरीर की कदकाठी विकसित हो गई तो पुनः उसे शिशु रूप मे परिवर्तित करना लगभग असंभव है।
दूसरा प्रश्न है क्या धर्म परिवर्तन करना संभव है। तो जिसे हम धर्म परिवर्तन हम मानते है मूलतः वह बस हमारे जीवन शैली मे परिवर्तन मात्र है। हम बस अपने जीवन जीने के तरीके मात्र को बदल लेते है और कुछ भी नहीं हम एक नए ईश्वर के स्वरूप को मानकर उनका पूजन करने लगते है लेकिन अगर देखा जाए तो सभी धर्मों का मूल उद्देश्य तो यही है कि लोगों के मध्य प्रेम सद्भाव रहे।
लेकिन सामाजिक कुरीतियों के करण विभिन्न संप्रदायों के निर्माण के उपरांत धर्म की परिभाषा परिवर्तित कर दी गई है जिससे हमने धर्म के स्वरूप को पहचान नहीं पा रहे है।
अब बात करें धर्म परिवर्तन क्यों होता है पहला है किसी धर्म मे किसी खास वर्ग के लोगों को नीच श्रेणी मे रखने से उन्हे अपने धर्म के प्रति घृणा हो जाती है और बदले के भाव मे वो अपना धर्म परिवर्तन कर लेते है साथ मे अन्य धर्म के लोगों कुच्छ लाभ देने के साथ उन्हे अपने संप्रदाय से जोड़ लेते है। दूसरा किसी भी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक और भौतिक लाभ के चक्कर मे कुछ लोग धर्म परिवर्तन कर लेते है। इन दोनों ही तरीकों मे धर्म परिवर्तन बस एक जीवन शैली परिवर्तन मात्र होता है।
अगर सही मायने मे धर्म को समझ जाए तो ये हमे एक परम सत्ता के बारे मे बोध करता है साथ ही हमे किस प्रकार से जीवन जीना है तथा समाज मे हमारा योगदान क्या होना चाहिए ये हमे बताता है। किसी भी धर्म के ग्रंथ को देखेंगे तो भले ही उन्होंने अपने धर्म की रक्षा के लिए हथियार उठाने इत्यादि की बात की है लेकिन हमेशा उनकी बात मे एकमत रहा है कि गलत का विरोध और सही का साथ यही असली धर्म है।
हमारे पुरातन अद्वैत वेदान्त की बात भी कि जाए तो उन्होंने भी एक ब्रह्म की कल्पना की है। जो कि सम्पूर्ण जगत का कर्ता धरता है। बाकी सब कुछ माय रूप है जिसे हम अपनी अज्ञानता के करण ही सही मान कर बैठे है।
निष्कर्ष- अब अगर इस पूरे लेख का सार समझने का प्रयास करे तो जानेंगे आजकल जो धर्म परिवर्तन की बात होती है ये बिल्कुल भी संभव नहीं हम बस किसी लाभ के चक्कर मे सामाजिक राजनीतिक प्रतिष्ठा के चक्कर मे संप्रदाय परिवर्तन करते है जीने के तरीके को बदलते है। धर्म बहुत ही व्यापक है इसे इतनी आसानी से परिवर्तित करना संभव नहीं। और सही मैने मे धर्म केवल मानव सभ्यता के विकास उसके उत्थान का कार्य कर्ता है। पारसी संप्रदाय के लोगों से सीखना चाहिए जहां व्यक्ति पारसी जन्म से ही पारसी हो सकता है। यहाँ तक की अगर किसी पारसी लड़की किसी गैर पारसी से विवाह करती है। तो उसका बच्चा पारसी नहीं होगा।
धर्म के जरिए हम हिंसा को भी सही ठहराते है लेकिन वो केवल तभी सही है जब धर्म की हानी हो और समाज मे कुछ गलत हो रहा हो पूरे मानव समाज के लिए गलत, समाज की कुरीतियों के करण जो लोग मजबूरी मे धर्म परिवर्तन करते है उनकी जगह पर संप्रदायों को अपने नियमों मे बदलाव करने की आवश्यकता है। क्योंकि ब्रह्म सबका है और धर्म उसके नियम है ये भी सबके ही है।
॥इति शुभम॥