धर्म और नीति क्या है, इनका मूल स्वरूप क्या है और इसके उद्देश्य क्या है।

दुनिया के हर देश और समाज मे धर्म और उसके कुछ नियम जिन्हे हम नीति के रूप मे जानते है, जो हमे हर देश काल परिस्थिति मे देखने को मिलते है। और जब बात आती है भारतवर्ष की तो यहाँ तो कई धर्म और उनकी नीतियाँ है और सबसे प्रमुख है सनातन धर्म और उनकी नीतियाँ। आज के इस लेख मे हम बात करेंगे कि धर्म की अर्थात धर्म का मूल उद्देश्य क्या है। क्यों इसका निर्माण किया गया और धर्म से जुड़ी नीतियों के पीछे क्या मंशा रही होगी।
धर्म का अर्थ- तो सबसे पहले जानना जरूरी है कि धार क्या है। संस्कृत व्याकरण मे धर्म को धृ धातु रूप से इंगि5त किया जाता है जिसका सामान्य अर्थ होता है धरण करना। और धर्म को परिभाषित करते हुए एक पंक्ति लिखी गई है धार्यते इति धर्म अर्थात जो धारण किए जाने योग्य हो वही धर्म है। अब अगर धारण शब्द को भी विस्तार से समझा जाये तो इसका तात्पर्य है। समाज मे रहने के लिए आचरण, व्यवहार, क्रिया कलाप, जीवन चर्या इत्यादि सभी क्रियाओं मे जो किसी मानक के अनुरूप धारण करने योग्य हो वही धर्म है।
धर्म का सीमित रूप- समय के साथ हमने धर्म की परिभाषा को सीमित कर दिया है। हमने केवल पूजा पाठ को ही धर्म के रूप मे देखना शुरू कर दिया है। जबकि धर्म का स्वरूप बहुत ही विशाल है। धर्म हमरे जीवन संचालन का सार है। जीवन यापन के सही स्वरूप को परिभाषित करता है। अतः केवल कर्म कांड तक ही धर्म को सीमित करना किसी भी रूप मे उचित नहीं है।
धर्म का उद्देश्य- अब प्रश्न आता है कि धर्म के निर्माण अथवा इसके गठन का उद्देश्य क्या है तो ये समझना होगा कि मानव प्रजाति ही एक अकेली प्रजाति इस संसार मे है जिसमे विवेकशीलता है और इसमे तर्क, चिंतन इत्यादि के गुण विद्यमान है तो जब मानव ने एक समाज का निर्माण किया तो सामी के साथ इनपर विपदाएं और कई परेशानियाँ मिली तथा इन्होने सोचा कि केवल हम ही नहीं है जो इस संसार का संचालन कर रहे है बल्कि हम सबसेर ऊपर एक परम सत्ता है जिसने इस सम्पूर्ण जगत का निर्माण किया है और इसका संचालन किया है।
तत्पश्चात कई मानुषियों महापुरुषों इत्यादि ने अपने अपने मत का निर्माण किया जिसमे उन्होने अपने तर्कों के आधार पर परम सत्ता परिभाषा प्रस्तुत की। और उस परम सत्ता के अनुरूप जीवन यापन करने को कहा जिसमे हमारी सम्पूर्ण जीवन शैली और समाज के संचालन की बात कही गई। और इस आधार पर धर्म के सिद्धान्त की शुरुआत हुई।
सभी धर्मों की शुरुआत और उनके संचालन की प्रक्रिया का वर्णन कैसे भी किया गया हो लेकिन उनके उद्देश्य एक ही थे और वो था इस समाज समाज और जगत का एक रूपता के साथ संचालन।
नीति- अगर एक पंक्ति मे नीति को परिभाषित करना हो तो नीति धर्म के मानकों का सुसंगठित स्वरूप है। नीति से तात्पर्य उचित अनुचित से है। हमारे समाज मे क्या उचित है या फिर क्या अनुचित है ये नीति के द्वारा ही जाना जाता है। इसी के परिवर्तित स्वरूप को आज के वर्तमान समाज मे विधि अथवा कानून के रूप मे भी जानते है।
नीति के उद्देश्य- कोई भी समाज हो अथवा समुदाय सब मे उनके संचालन के लिए उनके कुछ मानक होते है उन्हे उस समज के नीति के रूप मे जाना जा सकता है। और इन नीतियों का स्वरूप कितना भी भिन्न हो इनके उद्देश्य एक ही होते है जो है सर्व समाज के हितों के बारे मे सोचना। कोई भी कृत्य उचित है अथवा अनुचित इसका निर्धारण केवल और केवल उस समाज के हितों पर निर्भर कर सकता है।
नीति के स्रोत- जैसा कि हमने जाना कि नीति किसी समाज के उचित अनुचित का निर्धारण करती है। तो प्रश्न है कि नीति के स्रोत कोई समाज कहाँ से प्राप्त करता है तो जिस समाज मे जो धर्म अथवा प्रथा का पालन किया जाता है उनके आधार पर ही उनके कुछ मूल ग्रंथ अथवा उनके धर्म गुरुओं या फिर पैगंबर के कुछ विचार होते है उन्हे ही नीति के स्रोत के रूप मे जाना जाता है।
उदाहरण के रूप मे सनातन धर्म मे- भिन्न पुराण, संहिता, गीता, रामायण इत्यादि कई सारे ग्रंथ उनके नीतियों का निर्धारण करते है या फिर मुस्लिम धर्म मे कुरान, ईसाई धर्म मे बाइबल और सीख धर्म मे गुरु ग्रंथ साहिब इत्यादि
अगर ध्यान से देखा जाए तो हम पाएंगे तो इन सभी ग्रन्थों या फिर इनके मानुषियों के वाक्य के सर्व समाज के हित की ही बात करते है उनका सार बस यही है। बस रास्ते भिन्न भिन्न है।
सभी धर्मों के उद्देश्य एक तो मतभेद क्यों- अब प्रश्न उठता है जब सभी धर्मों का उद्देश्य और उनकी नीति एक जैसी है तो फिर इन मे इतना मतभेद कैसे है तो इसका सीधा सा जवाब ये है कि कोई भी धर्म किसी भी रूप मे मतभेद नहीं रखता ये तो उनके अनुयायियों ने एक दूसरे से भिन्नता दिखने के लिए अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने के लिए ये होड मचा रखी है इसका सबसे अच्छा उदाहरण है सबने अपने स्वरूप और अपने जीवन शैली को भिन्न बनाने को प्रयास किया है।
अपने पहनावे खान पान इत्यादि को अलग कर रखा है जबकि धायन से देखा जाए तो जिन धर्मों की जहां उत्पत्ति हुई या फिर जो फरिश्ते या महापुरुष जिस स्थान पर निवास किया या जीवन यापन किया उन्होने बस वहाँ की देश काल परिस्थित अनुसार जीवन शैली अपनाई। और हमने अज्ञानता वश उसको प्रथा के रूप मे अपना लिया। और इन सबके बीच धर्म और नीति के मूल उद्देश्य समाज मे एक रसता, सौहार्द्य इत्यादि की कल्पना को कल्पना ही रहने दिया।
निष्कर्ष- हमारे इस लेख का मूल उद्देश्य है आप लोगो को धर्म और नीति के सही स्वरूप को समझाना आज के समाज मे लोगो के मध्य वैमनस्यता, अस्थिर मन की स्थिति इत्यादि इतनी बढ़ गई है कि लोग अपने धर्म और प्रथा का स्वरूप ही बदलने पर उतारू है। न तो कोई मसीहा या पैगंबर गलत थे और न ही उनके विचार बस गलती हमारी है कि हमने उन्हे समझने मे गलती कर रखी है और जिसके परिणाम स्वरूप हम अपने अनुसार अपने धर्म और नीतियों के मूल स्वरूप से ही छेड़ छाड़ कर रहे है। जबकि किसी भी धर्म और नीति का मूल उद्देश्य है किसी भी समज मे सौहार्द्य और प्रेम का विस्तार और उस परम सत्ता के प्रति आभार जो इस सम्पूर्ण जगत का संचालक है।
||इति शुभम्य||